मारिसस में हो रहे विश्व हिन्दी सम्मेलन में मारीसस के लोगों को भी सौ डालर देकर प्रवेश की शर्त पर मारीसस के साहित्यकार रामदेव धुरंधर जी ने प्रश्न उठाया है.....
हिन्दी के उत्थान के लिए, हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए कार्यक्रम हो रहा हो और यह व्यवस्था हो कि जो रुपए देगा वह इसमें आ सकेगा..... लज्जाजनक बात है, हमारा उद्देश्य है कि हिन्दी जन जन तक पहुँचे और जो हिन्दी प्रेमी हैं, हिन्दी से जुड़े हैं उनके लिए दरवाजे बन्द कर दिये जायें कि सौ डालर की चाबी से हिन्दी का दरवाजा खुलेगा.....
क्या संदेश जाता है बाहर बैठे लाखों हिन्दी प्रेमियों के बीच..... जिस देश में हिन्दी सम्मेलन हो रहा हो वहाँ के हिन्दी प्रेमियों के लिए ऐसी शर्तें अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दी से पलायन की प्रेरणा देने वाली हैं...... यदि किसी देश के हिन्दी प्रेमियों को उसमें शामिल ही नहीं करने की मंशा या मजबूरी है तो फिर उस देश में विश्व हिन्दी सम्मेलन का औचित्य ही क्या रह जाता है ?
यदि हिन्दी प्रेमियों की संख्या को सीमित रखकर कुछ गिने चुने लोगों के बीच बन्द हाल में विचार विमर्श ही करना है तो फिर ऐसे कार्यक्रम भारत में भी किये जा सकते हैं, इतने लोगों को देश से विदेश ले जाकर करोड़ों रुपए खर्च करने का औचित्य क्या है ?
हिन्दी के लिए जितना कार्य अकादमियों और सरकारी संस्थानों आदि ने किया है उससे अस्सी गुना ज्यादा कार्य व्यक्तिगत स्तर पर किये गये हैं..... उन लोगों के लिए श्रद्धा से सिर झुक जाता है जिन्होंने शुरुआती दौर में हिन्दी के लिए शुषा फोंट, युनिकोड फोंट, देव फोंट आदि बनाकर इंटरनेट पर हिन्दी को चलना सिखाया.....
प्रारम्भिक ब्लाग हिन्दी में लिखे, कविता कोश बनाया, हिन्दी विकिपीडिया को सम्मानजनक स्थिति तक पहुँचाया......... अनुभूति जैसी वेबसाइट (हिन्दी साहित्य की पहली व्यवस्थित वेबसाइट) को अपने स्तर पर शुरू करके अब तक अनवरत रूप से संचालित किया ...
इनमें से तमाम हिन्दी प्रेमी वे लोग हैं जो विदेशों में रहकर यह कार्य करते रहे हैं..... इस समारोह में भी अपने पास से लाखों रुपये खर्च करके कई लोग पहुँचे हैं.... उनकी अभिलाषा केवल हिन्दी सम्मेलन में वक्तव्य सुनने और घोषणाएं सुनने की ही नहीं रही हैं वे इस उम्मीद में भी मारिसस गए हैं कि मारिसस के हिन्दी प्रेमी हिन्दी के विषय में क्या सोचते हैं ? वहाँ हिन्दी की क्या स्थिति है ?........
परन्तु जब वहाँ स्थानीय हिन्दी प्रेमी ही नहीं होंगे ( केवल वह होंगे जो सौ डालर देने में समर्थ हैं ) तो फिर वे भी अपने को ठगा हुआ ही महसूस नहीं करेंगे क्या ?
-डा० जगदीश व्योम
हिन्दी के उत्थान के लिए, हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए कार्यक्रम हो रहा हो और यह व्यवस्था हो कि जो रुपए देगा वह इसमें आ सकेगा..... लज्जाजनक बात है, हमारा उद्देश्य है कि हिन्दी जन जन तक पहुँचे और जो हिन्दी प्रेमी हैं, हिन्दी से जुड़े हैं उनके लिए दरवाजे बन्द कर दिये जायें कि सौ डालर की चाबी से हिन्दी का दरवाजा खुलेगा.....
क्या संदेश जाता है बाहर बैठे लाखों हिन्दी प्रेमियों के बीच..... जिस देश में हिन्दी सम्मेलन हो रहा हो वहाँ के हिन्दी प्रेमियों के लिए ऐसी शर्तें अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दी से पलायन की प्रेरणा देने वाली हैं...... यदि किसी देश के हिन्दी प्रेमियों को उसमें शामिल ही नहीं करने की मंशा या मजबूरी है तो फिर उस देश में विश्व हिन्दी सम्मेलन का औचित्य ही क्या रह जाता है ?
यदि हिन्दी प्रेमियों की संख्या को सीमित रखकर कुछ गिने चुने लोगों के बीच बन्द हाल में विचार विमर्श ही करना है तो फिर ऐसे कार्यक्रम भारत में भी किये जा सकते हैं, इतने लोगों को देश से विदेश ले जाकर करोड़ों रुपए खर्च करने का औचित्य क्या है ?
हिन्दी के लिए जितना कार्य अकादमियों और सरकारी संस्थानों आदि ने किया है उससे अस्सी गुना ज्यादा कार्य व्यक्तिगत स्तर पर किये गये हैं..... उन लोगों के लिए श्रद्धा से सिर झुक जाता है जिन्होंने शुरुआती दौर में हिन्दी के लिए शुषा फोंट, युनिकोड फोंट, देव फोंट आदि बनाकर इंटरनेट पर हिन्दी को चलना सिखाया.....
प्रारम्भिक ब्लाग हिन्दी में लिखे, कविता कोश बनाया, हिन्दी विकिपीडिया को सम्मानजनक स्थिति तक पहुँचाया......... अनुभूति जैसी वेबसाइट (हिन्दी साहित्य की पहली व्यवस्थित वेबसाइट) को अपने स्तर पर शुरू करके अब तक अनवरत रूप से संचालित किया ...
इनमें से तमाम हिन्दी प्रेमी वे लोग हैं जो विदेशों में रहकर यह कार्य करते रहे हैं..... इस समारोह में भी अपने पास से लाखों रुपये खर्च करके कई लोग पहुँचे हैं.... उनकी अभिलाषा केवल हिन्दी सम्मेलन में वक्तव्य सुनने और घोषणाएं सुनने की ही नहीं रही हैं वे इस उम्मीद में भी मारिसस गए हैं कि मारिसस के हिन्दी प्रेमी हिन्दी के विषय में क्या सोचते हैं ? वहाँ हिन्दी की क्या स्थिति है ?........
परन्तु जब वहाँ स्थानीय हिन्दी प्रेमी ही नहीं होंगे ( केवल वह होंगे जो सौ डालर देने में समर्थ हैं ) तो फिर वे भी अपने को ठगा हुआ ही महसूस नहीं करेंगे क्या ?
-डा० जगदीश व्योम
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