मुझे नहीं लगता कि मनोज जैन मधुर जी को अपने नवगीत के नवगीत होने में कोई संशय है। वे इसके बहाने नवगीत पर विमर्श चाहते थे। जहाँ तक मेरी समझ है सार्थक मुखड़ा, अंतरे सहित रचना नवगीत के शिल्प में है। पर नवता और युगबोध के नाम पर हम नवगीत की सीमारेखा क्यों खींचे। नैतिकता और मानवीय मूल्य सनातन और पुरातन होते हुए भी आज अधिक प्रासंगिक हैं। ह्रास होते नैतिक मूल्यों की चाह रखना क्या युगबोध नहीं है। बढ़ती जाती दूरियों और टकराहट के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने की चाह, दूसरे के आनंद में सुख ढूँढ़ना, थके हारों का आश्रय होने की चाह, कगार पर खड़े न जाने कब काल के गाल में समा जाने वाली अत्यल्प ज़िन्दगी में भी बड़प्पन ढूँढना, विषम परिस्थितियों में नट सा संतुलन थामना, झुरमुटों से चाँदनी के झाँकने के विम्ब के अतिरिक्त भी अन्य विंबों के साथ यह नवगीत क्यों नहीं है।
-रामशंकर वर्मा
July 10 at 5:06pm 
 
 
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