मुझे नहीं लगता कि मंच ही नवगीत के पारेषण का सही स्थल है।तिवारी जी हों या अन्य कोई रचनाधर्मी यदि वे मंचों से जुड़े हैं तो उनके अपने निहितार्थ हैं चाहे वो बाज़ारवादी सोच से ग्रसित हों या तथाकथित संवेदना से।
हंस क्यों बगुलों के बीच जाकर बैठने लगा??क्या ये स्वस्थ साहित्यिकता से परे नहीं हुआ??
प्रश्न यह है कि क्या यह साक्षात्कार पूर्व प्रेरित प्रश्नों का समूह तो नहीं।यश जी ने प्रश्नों का जो जाल बुना उत्तर भी उसी दिशा में बहते हुए मंचों की प्रशंसा के सागर में मिल गए।
साक्षात्कार तो तब उत्कृष्ट बनता और तिवारी जी की सटीक सोच का ताना बाना तब खुलता जब प्रश्नकर्त्ता उनका प्रशंसक न होता और मंचीय प्रावधानों की विचार धारा से दूर होता।
विमर्श की धारा को मोड़कर सोचना होगा क्या इस तरह के प्रश्न उत्तर से नवगीतकार के मन में मंचों के प्रति अधिष्ठित उदासीनता को समाप्त करने की चेष्टा तो नहीं?
-अवनीश त्रिपाठी
August 25 at 7:45pm
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