मंचीय कवि मंच की वकालत ही करेगा और उसके पक्ष में कुछ न कुछ तर्क गढ़ेगा जैसा कि तिवारी जी ने किया है। और यह संवेदना शब्द आजकल अच्छा प्रचलन में है कुछ भी दाल भात इसके नाम पर परोस दिया जाता है। मंच पर जाकर कौन सी जनता से जुड़ना चाहते हैं और कैसी संवेदना बटोरना चाहते हैं। सही क्यों नहीं कहते कि संवेदना के नाम पैसा बटोरना चाहते हैं। बाज़ार में दुकान सजाकर नवगीत बेचने की वकालत कब तक सुनी जाएगी। जनपक्षीय साहित्य और तथाकथित संवेदना युक्त साहित्य में अंतर होता है। जनपक्षीय साहित्य पैसे नहीं देता। उस पर सीटी और ताली नहीं बजती तो जाहिर है पैसे भी नहीं मिलते। तिवारी जी जनता से संपर्क करना चाहते हैं अपने नवगीत सुनाना चाहते हैं तो चलिए किसी गाँव में बाग़ में जमीन पर बैठते हैं और वहीं दो चार को इकट्ठा कर उन्हें अपने नवगीत सुनाते हैं।
-ब्रजेश नीरज
August 25 at 6:18pm
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