यह साक्षात्कार नवगीत पर एक सार्थक चर्चा कहा जा सकता है। एक गीतकार की दृष्टि से लिया गया यह साक्षात्कार स्वाभाविक भाव से संवेदनाओं को ही अधिक महत्त्व देता है।इस साक्षात्कार में नवगीत को समकालीन कविता के समकक्ष चिंतन वाली विधा तो माना गया है पर समकालीन कविता की मूल प्रवृत्तियों जैसे उत्तर आधुनिकता और नव उदारवादी प्रवृत्तियों को उपेक्षित ही रहने दिया गया है। लेकिन फिर भी नवगीत पर काफ़ी कुछ समेटने की कोशिश यहाँ दिखती है जो स्वागत योग्य है। माहेश्वर तिवारी जी नवगीत को जीते ही नहीं उसे जीवन भी देते हैं।वैसे सभी गीत नवगीत अंतःसलिला से ही फूटते हैं पर इनके तो और गहरे अंतस्तल के ऐसे किसी पाताल तोड़ कुएं को भेद कर आते हैं कि उनके उत्स का छोर ही नहीं मिलता।इन्हें और इनके नवगीतों को अलगाना मुश्किल है। इन्हें-उन्हें परस्पर प्रतिछवियाँ कहा जा सकता है। जैसा कि गीतकार ने स्वयं भी स्वीकारा है और वैसे भी इन्हें पढ़-सुन कर ऐसा लगता है कि जैसे इन्होंने नवगीत नहीं नवगीतों ने इन्हें रचा है।
-गंगा प्रसाद शर्मा
August 24 at 6:04pm
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