पूरा साक्षात्कार पढ़ने पर कई तरह के प्रश्न उभर रहे हैं।पहली चीज तो यह कियश मालवीय ने पृष्ठभूमि को कुछ ज्यादा ही सजा दिया है।सम्मान और प्रशंसा में शब्दों का अलंकरण ऐसा भी न हो कि कविता पीछे छूट जाए और कवि आदमी न होकर बड़़ा आदमी नजर आने लगे।मेघ मंद्र स्वर हवाओं में गूंज रहा है-मुझे नहीं लगता कि माहेश्वर तिवारी या किसी भी समकालीन गीत कवि को ऐसी किसी अलंकारी भाषा की जरूरत है।आज का समय इस भाषा को स्वीकार करने को जरा भी तैयार नहीं।और माहेश्वर तिवारी के गीतों को मानक मानना अभीजल्दबाजी होगी।माहेश्वर तिवारी कहते हैं किगीत लेखन के लिए बहुत भटकना पड़ता हैपर वे भटकते हुए गये कहां?नदी झील पर्वत झरने मरुस्थल के पास वह भी आवारगी करते हुए।आज का नवगीत ऐसी आवारगी कोमान्यता कतई नहीं देता जहां आम आदमी उसकी पीड़ाशोषण अन्याय दिखायी ही न पड़े या बाइचान्स दिखायी भी पड़ जाए तो वहां भी तफरी के लिएजगह बना ली जाए।
-रमाकान्त यादव
August 24 at 9:38pm
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