Sunday, September 27, 2015

माहेश्वर तिवारी का साक्षात्कार

आपने बिल्कुल सटीक बातें की हैं, जगदीश व्योमजी. मैं इस सार्थक समूह में चल रही चर्चां-टिप्पणियों से निस्सृत बहुत सारे विन्दुओं को उनकी प्रतिच्छाया के सापेक्ष भी देखता हूँ. सब समझ में आता है. 
//अपने तईं हमने नवगीत गोष्ठी शुरु कर दीजिये //
एक शुरुआत हो गयी है. उसकी आवृति को नियत करना है. यह आरम्भिक दौर है, यह भी हो जायेगा. ऐसे ही एक प्रयास के अंतर्गत आप भी दिल्ली के ’विश्व पुस्तक मेला २०१५’ में हुई नवगीत-गोष्ठी का हिस्सा बने थे. 
//यह ध्यान रखना होगा कि नवगीत गोष्ठियों को मंच के गलेबाजों और दसियों साल से एक दो गीत गाने वालों से बचना चाहिए //
गोष्ठियों में ऐसी कोई ’विकलांगता’ तुरत पकड़ में आ जाती है. गले का उपयोग स्वीकार्य है लेकिन नवगीत के शिल्प और कथ्य की कीमत पर नहीं. गोष्ठियों का स्वरूप चूँकि अध्ययनपरक तथा विधासम्मत होता है, अतः वातावरण कभी व्यावसायिक नहीं हो सकता. 
इन्हीं संदर्भों को लेकर मैं इस समूह में अपनी टिप्पणियाँ करता रहा हूँ. अब यह अलग बात है कई ’सज्जन’ मंच का अर्थ उसी मंच से लेते हैं जिसका विरूपीकरण हो चुका है. ऐसे कई सज्जनों को जानता हूँ जो चाहें जितना बोलें, व्यक्तिगत जमावड़े से अलग अन्य किसी ’मंच’ के अनुभव से शायद ही परिचित हों तथा तदनुरूप लाभान्वित हुए हों।

-सौरभ पाण्डेय
August 26 at 12:26pm

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