Sunday, September 27, 2015

माहेश्वर तिवारी का साक्षात्कार

और यह ठीक ही कहा है तिवारी जी ने किआवारगी का बड़ा सहयोग मिला है उनके गीतों को।तभी तो उनके गीत गुनगुनाने के लिए अधिक हैं तथ्य और सत्य की खोज के लिए कम।उनके गीतआधुनिक पेंटिंग की तरह ही हैंजैसा कि वे कहते हैं कि स्वामीनाथन जी ने उनकी प्रशंसा में कभी कहा था।और ये पेंटिगनुमा गीत कभी न तो ठीक ठीक विचार दे पाते हैं और क्रांतिधर्मा तो होते ही नहीं।माहेश्वर जी जब यह कहते हैं कि गम्भीर कवियों ने मंच को अछूत समझकर कविता का बड़ा अपकार किया है तो बात कुछ जचती नहीं।क्या सार्थक कविता मंचों की बदौलत जिन्दा है?सच तो यह है कि आज के मंच ने कविता का व्यापार ही किया हैदिया है तो बस थोड़ा सा मनोरंजन जो कि कोई कीर्तनकार या नौटंकी कार भी अपने तरीके से करता है।हां पहले कवि लोग मंच पर जाते थे पर तब गम्भीर कविता को सुनने सुनानेवाले मौजूद थे।नहीं जनवाद मन से नहीं उपजता जैसा कि माहेश्वर जी कहते हैं।असल में माहेश्वर जी के गीत मन से उपजते हैं।जनवाद तो विचार है दृष्टि है प्रतिबद्धता है।और इन्हीं चीजों का माहेश्वर जी के गीतों में अभाव है।आंखों में आंसू आना औरआंखों से चिंगारी फूटना दो अलग तरह की परिघटनाएं हैंदोनों को कभी कहीं विशेष परिस्थिति में ही जोड़ा जाना चाहिये।व्यक्तिगत भावुकता आशा निराशा प्रेम और सामाजिक सरोकारों के ज्ञानात्मक आवेगों में बड़ फर्क है।माहेश्वर जी उन्हें एक करने की कोशिश में सफल नहीं दिखते।और अंत में नई पीढ़ी केनवगीतकारों के नाम गिनाते हुए भी माहेश्वर तिवारी जी दृष्टि साफ नहीं हैं।ऐसाबुजुर्गगीतकार जिसके पास इतना अनुभव हो ज्ञान हो वह भी किसी मोह में फंसकर जो कुछ नाम गिनारहा है वे किसी भी तरह से विवेकपूर्ण तटस्थ न्यायपूर्ण और तर्क संगत नहीं दिखते।ये चुनाव माहेश्वर जी के गीत व्यक्तित्व को एक और तरह से कमजोर सिद्ध करते हैं।

-रमाकान्त यादव
August 24 at 10:25pm

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