यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकता
एकैकं अनर्थाय किम् तत्र चतुष्टयम् !!
यौवन धन सम्पत्ति प्रभुत्व और अविवेक.. इनमें से एक-एक अनर्थकारी है.. जिसके पास ये चारों हों वहाँ या उसका क्या ? अर्थात उसका कैसा आचरण होगा ?
महती यह नहीं कि किसने क्या किया, महत्त्वपूर्ण है कि प्रवृति क्या थी. क्या हम इस आलोक में कभी सोचना शुरु कर पायेंगे. या भँड़ास निकालने के तहत व्यवस्था का विरोध नहीं, अपितु स्वीकार्य अनुमन्य व्यक्तियों को पोषित करते हुए प्रवृति विशेष को ही प्रश्रय देते रहेंगे. यदि ऐसी सोच के अंतर्गत हम वैचारिक हो रहे हैं, तो अफ़सोस हमारे जैसा वाचाल, दुराग्रही और ढोंगी विचारक और कोई नहीं होगा. ऐसी स्थिति में हम विचारक नहीं, अपनी बारी की प्रतीक्षा करते घोर अवसरवादी ही होंगे. अगर ऐसी संज्ञा और मान से परहेज नहीं है तो फिर वर्ण-वर्ग भेद पर सारा विमर्श, सारी परिचर्चा अनावश्यक ही नहीं, थोथी बकवाद है. जिसकी ओट में आजतक मुट्ठियाँ भींची जाती रही हैं.
मुझे न उच्च, न दलित, किसी से कुछ नहीं लेना देना. बस ये बस ये देखना है कि क्या आमजन सहज है ? या, रुपहले पर्दे पर चलचित्र के किसी नायक के नकली गुस्से पर तालियाँ पीटता हुआ अपने को लगातार अप्रासंगिक करता हुआ मूर्ख है ? करोड़ों में खेलने वाला तथाकथित वह नायक सफल हो कर जिस प्रवृति को जीता है, उसकी प्रतिच्छाया में मुग्ध एवं तुष्ट रहना यदि किसी वर्ग या व्यक्ति-समूह को रोमांचित करता है, तो फिर मुझे कुछ नहीं कहना. अन्यथा, यह सालता है, बहुत-बहुत सालता है, कि हम दलित मनोविज्ञान की समझ के नाम पर अपनी दमित इच्छाओं का पोषण चाहते हैं. ऐसी इच्छा किसी दलित या पीड़ित आंदोलन का हेतु कभी नहीं रही है. तभी ऐसे आंदोलन प्राणवान भी रहे हैं.
वैसे यह सही है, कि सदियों-सदियों से पीड़ित-शोषित वर्ग एक बार में अपनी दमित इच्छाओं से निस्संग, निस्पृह नहीं हो सकता. किन्तु, यह भी सही है, इस घर को सबसे अधिक खतरा घर के चिरागों से ही है, जो वैचारिक रूप से दिशाहीन हैं या शातिर-दबंगों तथा ’शास्त्रीय’ शोषकों के हाथों की कठपुलली हैं. ऐसी ही एक कठपुतली का ज़िक्र यह नवगीत गा रहा है.
एक बात:
किसी नाम के साथ शर्मा, श्रीवास्तव, मिश्र, पाण्डेय, सिंह या वर्मा या ऐसे ही ’आदि-अनादि’ ’प्रत्यय’ देख कर, अपने मत और मंतव्य बनाने हैं, चीख-चिल्लाहट मचानी है, तो यह परिचर्चा के क्रम में महाभारी उथलापन और गलीज छिछलापन का द्योतक होगा. यह कत्तई साहित्य नहीं. ऐसे साहित्य को, क्षमा कीजियेगा, साहित्य नहीं घटिया राजनीति से प्रभावित परिवाद कहते हैं. फिर तो पीड़ितों व शोषितों के नाम पर आज ’एक वर्ग’ विशेष सबसे अधिक --जायज-नाजायज रूप से-- लाभान्वित होने का दोषी है. उक्त वर्ग से ताल्लुक रखने वाला आज हर तरह से रंगा सियार है. उसके किसी दिखावटी और थोथे गुस्से से कोई क्यों प्रभावित होने लगे ? ऐसी सोच क्या घटिया सोच नहीं होगी ? अवश्य होगी. अतः साहित्य को साहित्य ही रहने दिया जाय. सारी सड़कें राजधानी से गुजरती हैं का आलाप कितना कुछ बरबाद कर चुका है इसे क्या अब भी समझना बाकी है ?
अब इस नवगीत पर -
यह एक व्यंग्य है जो आजके समाज की नंगई को उघाड़ कर सामने लाने में सक्षम है. रमधनिया स्वयं रामधनी बने या किसी शातिर का मुहरा बना प्रधानपति श्री रामधनी कहलाता फिरे , वह दोनों स्थितियों में अपने वर्ग और समाज केलिए एक निपट गद्दार है. वह सिर्फ़ अपना भला देख रहा है. इस व्यक्तिवाची सोच का यदि कोई वर्ग समर्थन करता है तो यह स्वार्थी सोच का पोषण ही कहलायेगा.
ऐसे ही ’गद्दारों’ के दुष्कृत्य से ही विसंगतियाँ पैदा होती हैं. यही समाज में आज तक व्याप रही विद्रूपता का मूल कारण है. विद्रूपता को तारी करने का ठेका किसी वर्ग विशेष के माथे डाल कर कोई दोषी इकाई या वर्ग मुक्त नहीं हो सकता.
आगे, यह भी स्पष्ट करता चलूँ, कि इस नवगीत के इंगितों में जिस तरह से शातिरों के प्रभाव को रेखांकित किया गया है जिसकी प्रभावी पकड़ में रमधनिया और उसकी प्रधान बीवी है, उसकी ओर यदि समीक्षा के समय दृष्टि नहीं जा रही है, तो यह समीक्षकों की समझ का दोष है.
नवगीतकार इस प्रस्तुति के माध्यम से उच्च स्तर के व्यंग्य केलिए बधाई का पात्र है. नवगीत आज के पद्य-साहित्य की यदि धुरी है तो इस धुरी की कड़ियों को टुच्ची राजनीतिक् सोच से कमजोर न किया जाय.
शुभ-शुभ
-सौरभ पाण्डेय
July 21 at 1:27am
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