प्रस्तुत गीत में शैलेन्द्र शर्मा जी ग्राम के प्रभुत्वशाली वर्ग की पीड़ा का उल्लेख ही कर रहे हैं। उन्होंने अपने वर्ग की जिस त्रासदायक कसमसाहट ,मिस्मिसाहट और असहाय स्थिति का चित्रण किया है वह उसमें सफल रहे हैं। शैलेन्द्र जी जिस वर्ग या वर्ण से सम्बन्ध रखते हैं उसके वर्गहित पर पहुंची चोट और बेबसी को ही तो गीतके माध्यम से व्यक्त किया गया हैं। जिस व्यक्ति रमधनिया के माध्यम से स्थानीय सत्ता के सबसे निम्न पद पर पत्नी का चुनाव होने से मनोविज्ञान में हुए परिवर्तन और पांच साल में झुग्गी से महल तक की यात्रा का वर्णन किया है वह उसी सामंती संस्कारों में जीने वाले प्रभावशाली और प्रभुत्व वाले लोगों की दया-कृपा से तो चुना ही नहीं गया होगा बल्कि वह अपनी और अपने जैसे लोगों की संयुक्त शक्ति से ही देश-प्रदेश की दलितों /पिछड़ों /महिलाओं के प्रतिनिधत्व की नीति के कारण ही यह चुनाव जीत पाया है। उस दबंग वर्ग की त्रासदी यह है कि उन्हें उस दलित वर्ग से अपना चाटुकार और जी हुजूरी करने वाला कोई नहीं मिला या मिला भी तो वह चुनाव जीत नहीं पाया। तभी तो कसमसाहट है कि जिससे दबंग अब तक बेगार कराते थे अब उसकी अगवानी करने को विवश हैं। इसी के साथ शासन-प्रशासन के अधिकारियों का उसे तरजीह देना भी देखा नहीं जा रहा है। इस गीत से यह भी प्रकट होता है कि पहले जो नैतिक-अनैतिक ,वैध-अवैध लाभ जिस प्रभुत्वशाली वर्ग को मिलता था और जिसके द्वारा वे भी पांच साल में महल खड़े करते थे वे उससे वंचित हो गए हैं तथा वह व्यक्ति भी इतना सशक्त है कि उसका कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे और उस दलित की दबंगई के आगे बेबस हैं। शैलेन्द्र जी अपनी और अपने वर्ग की पीड़ा को व्यक्त करने में सफल रहे हैं। पूरे गीत में ऐसा कोई संकेत नहीं है कि यह सब देश की सामाजिक -राजनैतिक व्यवस्था की देन है। यदि गीत में ऐसा कुछ संकेत होता तब भी गीतकार की मानसिकता पर इतने प्रश्न नहीं उठते किन्तु जाने या अनजाने में शैलेन्द्र शर्मा उत्पीड़क/शोषक दबंग वर्ग के पक्षधर की भूमिका निभा रहे हैं। समूह में यह गीत रमाकान्त यादव जी के प्रश्नों के कारण बहस में आ गया है। गीत की भाषा -शैली कथ्य के अनुरूप है।पूरे गीत में जाति का उल्लेख नहीं है लेकिन भारतीय ग्राम्य व्यवस्था में जो लोग बेगार करने को विवश हैं वे दलित ही हैं चाहे जाति कोई भी हो। मेरा निवेदन है कि सुविज्ञ जन प्रस्तुत गीत और उसके निहितार्थ को दृष्टिगत रखते हुए अपना अभिमत रखेंगे तो सार्थक विमर्श हो सकेगा।
-जगदीश पंकज
July 20 at 10:17pm
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