किसी साहित्यिक रचना में कथ्य उसका प्राण होता है। प्रस्तुत गीत में रमाकांत यादव जी द्वारा कथ्य पर ही प्रश्न उठाये हैं जो अभी भी उत्तर मांग रहे हैं। प्रश्नों में जिस कटु सत्य का उल्लेख किया गया है वह कुछ मित्रों द्वारा पचाया नहीं जा रहा तथा अपने पूरे पांडित्य प्रदर्शन के बावजूद वैचारिक अजीर्ण की स्थिति से ग्रस्त होकर अनर्गल टिप्पणी करके रोदन कर रहे हैं। मान्यवर, विचार का विचार से और तर्क का तर्क से उत्तर दें तो विमर्श को सार्थक दिशा मिलेगी। अपने आप्त वचनों से समूह को समृद्ध करके और अपनी खीज और तिलमिलाहट को विमर्श के नाम पर उगल कर आपने क्या कमी छोड़ी है अपनी मानसिक दुर्गन्ध को समूह में फेंकने की? आप कहते हैं कि आपका किसी वाद या विचारधारा से कोई लेना देना नहीं क्या यह भी किसी यथास्थिति का वाद या विचार नहीं? वाह-वाह सुनने वाले कान सार्थक असहमति के स्वर सुनने से क्यों कतरा रहे हैं ?बहरहाल ,मेरा पुनः निवेदन है कि पलायन करने के बजाय रमाकांत यादव द्वारा प्रस्तुत नवगीत पर उठाये गए साहित्यिक प्रश्नों का साहित्यिक उत्तर दें तो समूह के विमर्श और संवाद-परिसंवाद के लिए हितकर रहेगा तथा अनेक मित्र जो इस विमर्श पर टिप्पणी न करते हुए भी ध्यान से पढ़ रहे हैं उन्हें भी अच्छा लगेगा।
-जगदीश पंकज
July 21 at 3:18pm
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