हर कठिन समय को भूल चुका और खोई लय को खोजने वाला चरित्र पूरे गीत में कहीं नहीं दिखा।अतिशय निराशा में अतीत के महाभारत को वर्तमान तक खींचा गया है।तब के महाभारत ने सत्य को कहीं कुछ अंशों तक बचाया भी था पर इस गीतकार को सब कुछ ध्वस्त हुआ ही नजर आता है।फिर मुखड़ा क्या कहता है पता नहीं।लगता है गीतकार कहना चाहता था कुछ और पर कह गया कुछ और।जीने को जब मरण ही बचा है तो फिर क्या सोचना कैसे सोचना?
-रमाकान्त यादव
-रमाकान्त यादव
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