भारतेन्दुजी, मेरा स्पष्ट मानना है कि ब्रह्मणवादी कोई व्यक्ति नहीं एक प्रवृति होती है. यदि इस महीन अंतर तक को नहीं जानता या किसी मंतव्य और वाद के तहत उसे जानने नहीं दिया जाता, तो समाज का हित नहीं. फिर सारी बातें चर्चा विमर्श आदि व्यक्तिगत क्रोध का पर्याय हैं. हम फिर लाख आमजन की बात करते रहें.. उसकी परिणति ’मीठा-मीठा गप-गप और कड़वा-कड़वा थू’ से अधिक नहीं होने वाली. और हम आमजन की बात करते हुए किसी पर अहसान नहीं कर रहे हैं. फिर भी यह सोच है जो गलत को गलत और सही को सही ठहराने की चेतना देती है. यदि इस सोच पर ही प्रहार होने लगे. तो फिर सबकुछ भले होता दिखे, साहित्य चर्चा नहीं. और तुर्रा ये कि अनर्गल रोदन का पर्याय कहा जाता है. आखिर यह मतभेद है. लेकिन मनभेद के बीज रोपने को श्रेष्ठता कहा जा रहा है ? किसने किनको कितना चढ़ा दिया है भाईजी ?
एक बात और, जहाँ-जहाँ दोयम दर्ज़े का निरंकुश विचार हावी होता है, वहीं ब्राह्मणवाद हावी होता है, जो स्वयं को प्रभावी बताने के लिए हर तरह की धुर्तई और वाचालता अपनाता है।
-सौरभ पाण्डेय
July 21 at 6:44pm
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